Sunday 19 August 2018

स्फूर्ति, ऊर्जा, दिर्घायुष्य, शारीरिक क्षमता एवं मानसिक शांति प्रदान करने वाली, आसान, रसप्रद, तुरंत फलदायी एकदम विश्वसनीय, अकसीर ओर धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्राचीन भारतीय व्यायाम-पद्धति-- सूर्य नमस्कार

मेरा जन्म भारत देश के गुजरात राज्य में होने के कारण मेरी मातृभाषा गुजराती है। इस एकमात्र  वजह को लेकर मेरे अपने ही मीत्रो ओर जान-पहचानवालों की यह हंमेशा की शिकायत रही हैं की चुस्ती-स्फूर्ति, तंदुरुस्ती, शारिरिक और मानसिक स्वस्थता, योग या नयी ऊर्जा हासिल करने जैसे विषयों को लेकर मैेने जीतने भी ब्लॉग लीखें हैं उन सभी को में अंग्रेजी के बजाय गुजराती मे क्यों प्रस्तुत नहीं करता हुं! उनका कहना हैं कि अंग्रेजी में होने से अंग्रेजी नहीं या कम जानने वाले बहोत सारे लोगों को, खास कर के घरेलू महिलाओं को अपने स्वास्थ्य के लिए कुछ करने की चाहत होते हुए भी मेरे ब्लॉग का कोई फायदा नहीं मीलता हैं।

वैसे भी मेरा यह फर्ज बनता हैं कि मुझे सबसे पहले मेरे अपने आसपास के लोगों को मुजसे हो सकें उतना अधिक से अधिक फायदा पहुंचाना चाहिए। काफी सोच विचार करने के बाद मैं अपने मीत्रो की बात से पुरी तरह सहमत हूँ के सिर्फ मेरे ब्लॉग की भाषा बदल देने से अपने अंतरंग वर्तुल के उपरांत पूरी दुनिया में फैले हुए एक खास हींदीभाषी वर्ग को भी लाभ मील सकता हैं। इस हेतु से मैंने इस ब्लॉग को हींदीमे लीखा हैं।

दुसरी शिकायत कुछ अंग्रेजी अच्छी तरह जानने वालों की भी है। उनके अपने जीवन की व्यस्तता ईतनी हैं कि उनमे से कइयों को तो मेरे ब्लॉग में बताये हुए विविध व्यायाम, कसरत या योगासनों के लिए आधे या पोने घंटे से ज्यादा समय नीकालने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। ज्यादातर लोगों को अगर एसा कुछ करना भी है तो उनको अपनी धार्मिक प्रवृत्ति जैसी के पूजा-पाठ या प्राथना-भक्ति के समय को या तो कम करना पडेगा या तो अपने नीत्यक्रममे से ही निकाल बाहर करना होगा!

जो थोड़े लोग कुछ समय निकाल पा रहे है उनकी भी एकदम अलग समस्या है। थोड़े से समय में श्रेणीबद्ध कसरतो या आसनो करना उनके बस की बात ही नहीं हैं। शरीर सुदृढ़ बनाने के लिए अलग, स्फूर्ति के लिए अलग, वजन बढ़ाने या घटाने के लिए अलग, ओर अगर कोई रोग या बिमारी है तो उसके लिए अलग ऐसे विविध प्रकार के प्रयोग पहले शीखना और बाद में उसे हररोज जारी रखना उनके लिए असंभव है।
 
इसका सीधा मतलब यह होता हैं की मुझे आधे पोने घंटे में ही पुरा कर लीया जाय एसा कोई खास प्रयोग ढुंढना हैं जो की आसान हो, रसप्रद हो, शक्ति, स्फूर्ति, ऊर्जा और दिर्घायुष्य प्रदान करने वाला हो। तुरंत फलदायी हो। और शारिरिक क्षमता और मानसिक शांति मे निरंतर बढोतरी करते हुए शरीरको सुदृढ़ और मजबूत बनानेवाला हो।

उतना ही नहीं इसका धार्मिक महत्व भी हो। इसमे प्राथना, मंत्रोच्चारण और पुजाविधि भी समाविष्ट हो। ओर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसमें विविध प्रकार की कसरतो या आसनो का श्रेणीबद्ध जमावड़ा बीलकुल होना नहीं चाहिये।

ऊपर बतायें गये सभी लाभ एकसाथ प्रदान कराने वाला अगर कोई प्रयोग हैं तो वह है सूर्य नमस्कार अर्थात् भगवान श्री सूर्यनारायण की वन्दना। सूर्य नमस्कार अत्यंत प्राचीन काल में ऋषिमूनिओ द्वारा अपने तपोबल से खोजी गई एकदम सटीक, विश्वशनीय ओर अकसीर प्राचीन भारतीय व्यायाम-पद्धति है।

इसका शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी है। वृध्धत्व को मृत्यु के आने तक दूर रखने वाले सूर्य नमस्कार का अतिरिक्त फायदा यह हैं कि इससे आँखों की रोशनी भी बढ़ती है।
सूर्य नमस्कार में कुल बारह क्रीयाए होती हैं जीनको सामान्यतः अवस्थाएँ या स्थितियाँ कहाँ जाता हैं। इन बारह क्रीयाओ द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग को योग्य व्यायाम मिल जाता है। दरअसल इन बारह अवस्थाओं में दस आसन हैं और प्रारम्भ तथा अंत की दो क्रीयाए (दक्षासन और नमस्कारासन) स्थितियाँ हैं। ये सभी क्रियाएँ अत्यंत सरल होने से आबालवृद्ध सभी सरलता पूर्वक कर सकते हैं। ये बारह अवस्थाएँ मिलकर एक संपूर्ण सूर्य नमस्कार होता है और पच्चीस नमस्कार की एक आवृत्ति होती है।
सूर्य नमस्कार करनेकी पद्धति :
प्रात:काल पूर्व दिशा में खड़े रहकर शांत चित्त से भगवान सूर्य नारायण की स्तुति करते-करते सूर्य नमस्कार किया जाता है। सूर्य नमस्कार की बारह अवस्थाओं का संपूर्ण विवरण यहां नीचे चित्रों सहित दिया गया है। जो कोई अवस्था आसन है तो उस आसन का नाम चित्र के साथ दर्शाया गया है। इसे करनेवाले व्यक्ति को वह पुरी सोच-समझ के साथ और सरलता से यह प्रत्येक क्रिया कर रहा है के नहीं इसकी संपूर्ण सतर्कता रखना बहुत जरूरी है।

सूर्य नमस्कार हमेशा खुली और स्वच्छ जगह में करना चाहिए। कभी इस प्रकार से सूर्य नमस्कार न करें कि आप हाँफने लगें। सूर्य नमस्कार की क्रिया हर बार पैर बदलते हुए प्रत्येक पैर पर क्रमश करें।
सूर्य नमस्कार करना शुरू करनेसे पहले निम्नलिखित प्रार्थना करने के बाद प्रत्येक अवस्था के साथ जीतना ज्यादा हो सके उतना भगवान सूर्य नारायण के विभिन्न नामों का उच्चारण करके उन्हें मन ही मन प्रणाम करें। अगर आप एक से अधिक सुर्यनमस्कार एक साथ करना चाहते है तो दुसरी बार इसे दोहराते वक्त अर्थात एक से ज्यादा सुर्यनमस्कार करते समय हर बार प्राथना दोहराती नहीं जाती हैं।

प्रार्थना :
ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती
नारायणः सरसिजासनसन्निविष्ट:।
केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी
हारी हिरण्यमयवपुर्धृतशङ्खचक्रः।
मंत्र :
 1. ॐ मित्राय नमः
 2. ॐ रवये नमः
 3. ॐ सूर्याय नमः
 4. ॐ भानवे नमः
 5. ॐ खगाय नमः
 6. ॐ पुष्पे नमः
 7. ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
 8. ॐ मरीचये नमः
 9. ॐ आदित्याय नमः
10. ॐ सवित्रे नमः
11. ॐ अर्काय नमः
12. ॐ भाष्कराय नमः

पहली अवस्था दक्षासन:
सूर्य नमस्कार की पहली अवस्था में एकाग्रचित्त से भगवान सूर्य नारायण का ध्यान लगाए और ऐसी भावना कीजिए कि 'मैं सबका मित्र हूँ और जगत के प्राणि मात्र से मेरी मित्रता है।' इसके बाद सिर, गले और पूरे शरीर को तना हुआ रखिए। घुटने मिले हुए, कंधे सीधे और हाथ नीचे की ओर लटकते रखें। एक बहादुर व्यक्ति की तरह सीना निकालकर सीधे खड़े रहिए। दृष्टि नासिकाग्र पर केन्द्रित कीजिए। 'दक्ष' अर्थात् सीधे खड़े रहना। इसलिए प्रथम अवस्था को 'दक्षासन' कहा जाता है।
लाभ :
(1) त्वचा और कमर के रोग दूर होते हैं। पीठ सशक्त बनती है और पैरों में नया जोश आ जाता है।
(2) दृष्टि नासिकाग्र पर केन्द्रित होने से मन का निरोध होता है।
(3) चेहरा तेजस्वी बनता है।
(4) विद्यार्थियों के लिए स्वास्थ्य-प्राप्ति और व्यक्तित्वविकास का यह एक अत्यंत सरल उपाय है।
(5) एकाग्र चित्त से ध्यान करने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।

दूसरी अवस्था नमस्कारासन:
दोनों हाथ इस प्रकार जोड़िए कि अँगूठे सीने का स्पर्श करते रहें। सीना बाहर निकालिए और पेट को यथासंभव भीतर की ओर खींचिए। दृष्टि सामने रखिए। शरीर, सिर और गर्दन एक सीधी रेखा में रहने चाहिए। मुंह बंद करके कुम्भक कीजिए। साँस अंदर खींचकर उसे रोके रखकर
फेफड़े फुलाइए।
लाभ :
(1) गले के रोग मिटते हैं और स्वर अच्छा होता है।
(2) शरीर और मन स्वस्थ बनते हैं।

तीसरी अवस्था पर्वतासन:
हाथों को ऊपर उठाकर पूरे शरीर को पीछे की ओर खींचिए और आँखें खुली रखकर आकाश की ओर देखिए। पीछे की ओर जितना झुक सके झुकिए। कुम्भक जारी रखीये। सीना फुलाइए और इसे होसके उतना बाहर की ओर निकालिए।
लाभ :
(1) दोनों कन्धों और अन्ननली की पोषण मिलता है तथा उनसे सम्बन्धित रोग मिटते हैं।
(2) आँख की वहनशक्ति बढ़ती है।

चौथी अवस्था हस्तपादासन:
कुम्भक जारी रखकर घुटने झुकाए या मोडे बिना नीचे की ओर झुकिए। दोनों हथेलियाँ इस प्रकार भूमि पर जमाइए कि जिससे ऊँगलियाँ एक-दूसरे का स्पर्श करें। दोनों हाथों के अँगूठे पैरों के अंगूठों की सीध में रखिए। इसके बाद नाक से अथवा ललाट से घुटनों को छूकर ध्वनियुक्त रेचक कीजिए। साँस बाहर छोड़िए। साँस नाक से ही बाहर छोड़े, मुंह से नहीं। प्रारम्भ में यदि उँगलियाँ भूमि को थोड़ा भी स्पर्श करेंगी तब भी चलेगा। धीरे-धीरे पूर्ण स्थिति आ जाएगी।
लाभ :
(1) पेट के रोगों का नाश करता है। सीने को बलिष्ठ बनाता है। हाथ भी बलिष्ठ बनते हैं और शरीर सुन्दर और दर्शनीय बनता है।
(2) पैरों की उँगलियों के रोग मिटाकर अशक्तों को नई शक्ति प्रदान करता है।

पांचवी अवस्था एकपद प्रसरणासन:
नाक से ध्वनियुक्त पूरक करके दायाँ पैर इस प्रकार पीछे की ओर लीजिए ताकि उस पैर का घुटना और उँगलियाँ भूमि का स्पर्श करें। बाएँ पैर का घुटना जीतना हो सके उतना बाई बगल के आगे लाइए। पेट अच्छी तरह दबना चाहिए। सिर उठाकर जितना अधिक आप ऊपर की ओर देख सकें, देखिए। कमर झुकाइए। कुंभक करके साँस को रोके रखिए।
लाभ :
(1) इस स्थिति में छोटी आँख पर जोर पड़ता है और वीर्यवाहिनी नसें खिचती हैं, अत: कब्ज और जिगर के रोग मिटते हैं।
(2) धातुक्षीणता में लाभ होता है।
(3) काकल जैसे गले के रोग मिटते हैं।

छठ्ठी अवस्था भुधरासन:
कुंभक जारी रखकर दूसरा पैर पीछे ले जाइए। अँगूठे, टखने और घुटने एक-दूसरे का स्पर्श करें इस प्रकार दोनों पैरों को जमाइए। सिर, कमर और शरीर का पिछला भाग तथा कुहनियाँ एक सीध में और तने हुए रखिए। पूरा शरीर दो हथेलियों और दोनों पैरों की उँगलियों पर रखिए।
लाभ :
(1) हाथ, पैर और विशेषत: घुटनों का दर्द मिटता है।
(2) मोटी कमर को पतली बनाता है।
(3) पेट के रोगों के लिए यह स्थिति रामबाण इलाज है।

सातवीं अवस्था अष्टांग प्रणिपातासन:
साँस रोककर दोनों घुटने भूमि पर रखिए। सीने से भूमि का स्पर्श कीजिए। दाढ़ी से गले के नीचे के भाग का स्पर्श कीजिए। ललाट का ऊपरी हिस्सा भी इस प्रकार भूमि को लगाइए कि नाक भूमि का स्पर्श न करे। पेट को भीतर खींच लीजिए, वह भूमि का स्पर्श न करे इसकी सतर्कता रखिए। फिर फेफड़ों के अंदर की हवा पुरी तरह नाक से नीकाल दीजिये। पूर्ण रेचक कीजिए। सीने का भाग दो हाथों के बीच में आना चाहिए।
लाभ :
(1) यह आसन हाथ को बलिष्ठ बनाता है।
(2) यदि स्त्रियाँ सगर्भावस्था के पूर्व यह व्यायाम करें तो पय:पान (दूध पीते) बच्चे रोगों से बच सकते हैं।

आठवीं अवस्था भुजंगासन:
पैर, घुटने और हथेलियाँ उसी स्थिति में रखकर हाथ सीधे कीजिए। साँस भीतर खींचिए और सीना आगे कीजिए। कमर को गोलाकार में मोड़कर यथासंभव अधिक से अधिक ऊपर से पीछे की ओर देखिए।साँस को रोके रखकर कुंभक कीजिए।
लाभ :
(1) निस्तेजस्विता दूर करके शरीर में लाली लाता है और आँख का तेज बढ़ाता है।
(2) रज-वीर्य के सभी प्रकार के दोषों को मिटाता है और स्त्रियों के मासिक धर्म की अनियमितता दूर करता है।
(3) रक्त-परिभ्रमण ठीक होने से मुख की कांति और शोभा में वृद्धि होता है।

नवमी अवस्था भुधरासन:
यह स्थिति उपर बताया हुआ भुधरासन ही है। उपर बताई अवस्था में नीचें झुके थे, अब वापिस उपर उठना हैं। कुम्भक जारी रखिये हथेलियाँ और पैरों की उंगलियाँ हिलाइए बिना कमर सीधी करके घुटनों से झुके बगैर पीछे की ओर झुक जाइए। दाढ़ी से सीने का स्पर्श कीजिए। पेट को भीतर खींचिए। यथासंभव नितम्बों को ऊपर उठाइए। पैरों के तलवे भूमि को पूर्णत: छूने चाहिए।
लाभ :
(1) संधिवात, पक्षाघात तथा अर्धांगगवायु की बीमारी नहीं होती।
(2) पैरों में अश्व के समान बल उत्पन्न होता है।

दसवीं अवस्था एकपद प्रसरणासन:
यह स्थिति उपर बताए हुए एकपद प्रसरणासनके समान ही है। उपर बताई अवस्था में नीचें झुके थे, अब वापिस उपर उठना हैं। दण्ड लम्बरेखा में लाकर बायाँ पैर आगे लीजिए। उसे जिस जगह से उठाया हो उसी जगह रखिए। घुटना बगल में लाइए और पैर का तलवा पूर्णत: भूमि पर रखिए। इस स्थिति में पेट अच्छी तरह दबना चाहिए। गर्दन और सिर पीछे की ओर लीजिए और यथासंभव पीछे देखिए।
लाभ :
(1) पैरों में रक्त गतिशील बनता है और व्यक्ति की चलने की शक्ति बढ़ती है।
(2) मेरुदण्ड में लचीलापन आता है।

ग्यारहवीं अवस्था हस्तपादासन:
यह स्थिति उपर बताए हुए हस्तपादासन के समान ही है। पेट भीतर की ओर खींचिए। दूसरा पैर ठीक पहले के स्थान पर रखिए। नाक अथवा ललाट घुटनो को लगाइए। ध्वनियुक्त पूर्ण रेचक कीजिए।
लाभ :
हस्तपादासनसे होनेवाले लाभों का जो वर्णन ऊपर कर चुके हैं वे ही लाभ यहाँ भी होंगे।
(1) पेट के रोगों का नाश करता है। सीने को बलिष्ठ बनाता है। हाथ भी बलिष्ठ बनते हैं और शरीर सुन्दर और दर्शनीय बनता है।
(2) पैरों की उँगलियों के रोग मिटाकर अशक्तों को नई शक्ति प्रदान करता है।

बारहवीं अवस्था नमस्कारासन:
यह स्थिति उपर बताए हुए नमस्कारासन के समान ही है। ईसमें भी दोनों हाथ इस प्रकार जोड़िए कि अँगूठे सीने का स्पर्श करते रहें। सीना बाहर निकालिए और पेट को यथासंभव भीतर की ओर खींचिए। दृष्टि सामने रखिए। शरीर, सिर और गर्दन एक सीधी रेखा में रहने चाहिए। फर्क सिर्फ इतना है कि मुंह बंद करके कुम्भक के बजाय पूरक कीजिए। साँस अंदर खींचकर उसे रोके रखने के बजाय जीतना हो सके उतना साँस बाहर फेकीए। इस प्रकार ध्वनियुक्त पूरक करके उपर बताइ गई नमस्कारासन अवस्था के अनुसार तनकर खड़े हो जाइए। पैर और घुटने एक-दूसरे से चिपके हुए और पैर तने हुए होने चाहिए।
लाभ :
नमस्कारासन से होनेवाले लाभों का जो वर्णन ऊपर कर चुके हैं वे ही लाभ यहाँ भी होंगे।
(1) गले के रोग मिटते हैं और स्वर अच्छा होता है।
(2) शरीर और मन स्वस्थ बनते हैं।

खास सुचना:
यहां यह समजना अत्यंत आवश्यक हैं कि सुर्यनमस्कार का सबसे प्रथम चरण दक्षासन एक ध्यान की स्थिति हैं। इस दौरान भगवान श्री सुर्यनारायण का ध्यान लगाकर मंत्रोच्चारण शुरू किया जाता है। यह स्थिति पहला सुर्यनमस्कार करते समय एक बार ही की जाती हैं। अगर आप एक से अधिक सुर्यनमस्कार कर रहे हो तो आप को हर बार ध्यान करना नहीं रहेता हैं मगर मंत्रोच्चारण जरूर जारी रखे।

दक्षासन के पस्चात सुर्यनमस्कार की एक संपूर्ण क्रीया नमस्कारासन से शुरू हो कर नमस्कारासन से ही पूर्ण होती हैं।

यह बात का खास ध्यान रखें के सुर्यनमस्कार में छठ्ठी, सातवीं और आठवीं अवस्थाए एक दूसरे पर आधारित अपने आप में एक ही प्रक्रिया के तीन अलग अलग प्रकार है। इसलिए तीनों अवस्था एक साथ करते हैं, बीचमें बीलकुल अटकना या विराम लेना नहीं है।

एक ही समय पर एक से ज्यादा सुर्यनमस्कार करते समय आठवीं अवस्थाके बाद जब वापसी का चरण शुरू होता हैं तो भुजंगासन अवस्था पुरी होने के पस्चात अष्टांग प्रणिपातासन अवस्था में आए बीना ही सीधे भुधरासन अवस्था आती है। और उसी प्रकार हस्तपादासन अवस्था पुरी होने के पस्चात पर्वतासन अवस्था मे आए बीना ही सीधे नमस्कारासन अवस्था मे आने से एक सुर्यनमस्कार संपूर्ण माना जाता हैं।
 
कुछ आवश्यक जानकारी:
अगर आप सूर्य नमस्कार करना शुरू करना चाहते हो तो सबसे पहले आपको योग में नीवं समान बहुत महत्वपूर्ण तीन क्रियाओं “पुरक, कुंभक और रेचक” के बारे में जानकारी प्राप्त करना अति आवश्यक है। वैसे तो हम जन्म से लेकर मृत्यु तक हर पल पूरक और रेचक क्रिया करते ही रहते हैं। पूरक का अर्थ है श्वास लेना और रेचक का अर्थ है श्वास छोड़ना।

श्वास लेने और छोड़ने के बीच हम कुछ क्षण के लिए रुकते हैं। इस रुकने की क्रिया को ही कुंभक कहते हैं। जब हम श्वास अंदर लेकर रुकते हैं तो उसे आभ्यांतर कुंभक कहते हैं और जब हम श्वास बाहर नीकालकर रुकते हैं तो उसे बाह्य कुंभक कहते हैं।

अभ्यास करने की पद्धति:
इतना जान लेने के बाद अब आप श्वास छोड़े और लें। छोड़ते वक्त अर्थात रेचक करते समय तब तक श्वास छोड़ते रहें जब तक छोड़ सकते हैं और फिर तब तक श्वास दोबारा न लें जब तक उसे रोकना मुश्किल होने लगे। ये हुआ आपका एक बाह्य कुंभक।

फिर श्वास तब तक लेते रहें अर्थात पुरक करते रहीए जब तक आपको यह महसूस हो की इसके आगे अब श्वास अंदर नहीं लीया जायेगा। एसे पूर्ण हो जाने के बाद श्वास को सुविधानुसार अंदर ही रोककर रखें। ये हुआ आपका एक आभ्यांतर कुंभक। इस तरह पूरक, रेचक और कुंभक का अभ्यास करें। धीरे धीरे तीनों क्रीयाओ की अवधि बढाते रहीए।

पूरक, रेचक और कुंभक के अच्छे से अभ्यास के बाद सिर्फ श्वास छोड़ने की प्रक्रिया ही करें। थोड़ी सी श्वास अंदर पुरी दाखिल हुई भी न हो कि तुरंत इसे बाहर छोड़ दें। इस प्रकार रेचक क्रिया जब थोड़ी तेजी से करते हैं तो इसे कपालभाती प्राणायाम कहते हैं। इसे करने के बाद 10 मिनट का ध्यान (Meditation) अवश्य करे।

इस क्रिया से सारा स्ट्रेस बाहर आ जाता है। ‍अनावश्यक चर्बी घटकर बॉडी फिट रहती है और फेफड़ों के भीतर जो भी दूषित वायु तथा विकार होता है, उसके बाहर निकलने से चेहरे और शरीर की चमक बढ़ जाती है। इससे आपका तन, मन और प्राण नवपल्लवीत हो जाएगा। यह शरीर को स्वस्थ रखने में सक्षम है। हालांकि इसका अभ्यास किसी योग चिकित्सक से पूछकर ही करना चाहिए।

उसके पस्चात अगर उपर दर्शायी हुई प्रार्थना से सूर्य नमस्कार आरंभ कीया जाये, फिर तो सोने पे सुहागा।

महेश भट.

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