Tuesday, 16 April 2019

सनातन हिन्दू धर्म के प्राथमिक मंत्र और उसकी आवश्यक समजुती:


मेरा यह स्वयंका अनुभव है कि कुछ लोग हिन्दू धर्म में आस्था रखते होते हुए भी संस्कृत नही आती होने के कारण ना तो वेद पढ पाते है ना उपनिषद, बावजूद इसके उनमेंसे कइ ल़ोग ईश्वर का नाम लेकर अपना जीवन पवित्र और आध्यात्मिक रखने की ख्वाहिश तो रखते ही हैं।

इस बात को ध्यान में रखते हुए यहां मैने वेदो एवं उपनिषदोमेसे कुछ चुनें हुए प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्रोका संग्रह पेश करनेका संन्निष्ठ प्रयास किया हैं, जीसमें कीस मंत्रका क्या महत्व है और इसका क्या क्रम होना चाहिये इसका खास ध्यान रखा हैं। यदि एसे कुछ लोग हररोज सुबह और शाम निम्नलिखित मंत्रोका पठन कर अपना जिवन सार्थक कर सकेंगे तो वह मेरा सबसे बडा सौभाग्य होगा।

हिन्दू शाश्त्र कहते हैं कि हमारे हथेलीमें सभी प्रमुख देवी-देवताओं निवास करते हैं, प्रात: उठते ही उनके दर्शन करनेसे दिनभर उनकी शुभ द्रष्टि बनी रहती हैं।
प्रातः कर-दर्शनम् मंत्र:
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमूले सरस्वती। करमध्ये तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

स्नान करते समय भरत खंड की प्रमुख सात नदियों का आव्हान करनेसे शरीरकी पवित्रता अखंडित रहती हैं।
शुद्धि स्नान मन्त्र:
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

पौराणिक मान्यता है कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत में गणेशजी का पुजन करनेका देवाधिदेव महादेव ने कहा है।
गणपति स्तोत्र:
गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:। द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥
विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:। द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥
विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

गणपति मंत्र:
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।
विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय। लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय। गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं। प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

हनुमानजीको भगवान शिव का अवतार माना गया हैं, इनका नाम लेने मात्रसे सर्व कष्टों और अनिष्टों का नाश होता हैं।
हनुमान वंदना:
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌। दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌। रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

हनुमान मंत्र:
अंजनीगर्भ संभूतो वायुपुत्रो महाबलः। कुमारों बाल ब्हमचारी हनुमंताये नमोनमः।।
अंजनीगर्भ संभूत कपीन्द्र सचिवोत्तम।
रामप्रिय नमस्तुभ्यं हनुमन् रक्ष सर्वदा॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

पुरातन आर्य संस्कृति मेंं सुर्यपूजाको सबसे ज्यादा प्राधान्य दिया गया हैं क्योंकि ना ही सिर्फ हमारे ग्रहमंडल का किंतु हमारी उर्जा का प्रमुख आधार ही सूर्य है।
सूर्यनमस्कार:
ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम् सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥
ॐ मित्राय नम:
ॐ रवये नम:
ॐ सूर्याय नम:
ॐ भानवे नम:
ॐ खगाय नम:
ॐ पूष्णे नम:
ॐ हिरण्यगर्भाय नम:
ॐ मरीचये नम:
ॐ आदित्याय नम:
ॐ सवित्रे नम:
ॐ अर्काय नम:
ॐ भास्कराय नम:
ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर। दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

सूर्य के निकलने से जैसे हमारे आसपास अंधकारका नाश होता हैं ठीक उसी तरह एक दिप जलाने से जो प्रकाश उत्पन्न होता हैं वो हमारे मनका अंधकार मिटा देता हैं इसलिए यह मंत्र दिप या अगरबत्ती जलाकर करना चाहिए।
दीप दर्शन:
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥
दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

हिन्दूशाश्त्रों कल्याणकारी शिव स्वरूपको परमपिता परमेश्वर मानते हुए विश्वास करते हैं कि जिस क्षण पर उस अनादि स्वरूप ने लीला करके अपने आप को जड और चेतनमें बांट दिया तबसे पुरा संसार जड, चेतन और समय के त्रिगुणात्मक स्वरूप में बना हुआ हैं। शिव नाम स्मरण से हमारा वजुद निखरता हैं और हमें मृत्यु के डरसे निर्भय बनाता हैं।
शिव स्तुति:
कर्पूर गौरम करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि॥

हिन्दू शाश्त्रों के अनुसार कल्याणकारी शिव स्वरूप के आधे हीस्सेसे बहते चेतनके मूल स्तोत्र को आदिशक्ति नामसे जाना जाता हैं। इसके स्मरण करनेसे हममें शक्ति और ऊर्जाका संचार होता हैं।
आदिशक्ति वंदना:
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवाधिदेव महादेव से निर्मित ब्रह्मा, विष्णु और महेश संसार में पूजित तीन प्रमुख देवों हैं। जीसमें भगवन ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता के रूप में जाना जाता है तो भगवान विष्णु को पालनकर्ता एवं भगवान महेश को संहारकर्ता के रूप में पूजा जाता है।

सारे ब्रह्माण्ड के जनक भगवान ब्रह्माको सब देवों में पिता के रूप मानकर परमपिता ब्रह्मा भी कहा जाता है और चार मुख होने के कारण चतुर्मुखी ब्रह्मा के नाम से भी जाना जाते वयोवृद्ध प्रजापति ब्रह्माजीने चारों वेदों की रचना की थी। ब्रह्मा की उपासना से सभी प्रकार के विकारों से मुक्ति सहित भौतिक उपादानों की प्राप्ति हैं।
ब्रह्म गायत्री मंत्र:
ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥
ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥

हिन्दू शाश्त्रों के अनुसार भगवान ब्रह्मा के बनाए गए इस समस्त ब्र्हमांडका संचालन सत्य, धर्म, प्रेम, दया और विश्वास अखंडीत रखतें हुए भगवान विष्णु करते हैं। उनके नाम स्मरण से हमे संसार के किसी भी प्राणीसे डर नहीं रहता हैं।
विष्णु स्तुति:
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

भगवान विष्णु के अवतार प्रभु श्री रामका नाम स्मरण करनेसे हम संयमशील और मर्यादामे बने रहते हैं।
श्रीराम वंदना:
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

जहां प्रभु श्री कृष्ण का नाम स्मरण होता हैं वहां हंमेशा सत्य और विजयका प्रभुत्व बना रहता हैं।
श्री कृष्ण वंदना:
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

पंचमहाभूतोंसे निर्मित समस्त ब्ह्रमांड अनेकों ग्रहों और उल्कापिंडोका बना हुआ हैं जिसका सर्जन, संचालन और विसर्जन त्रिदेवों के हाथों में हैं।
त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण:
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

एसा माना गया है कि माता सरस्वतीके बसने से ही हमारी वाणी का वजूद उभरता हैं।
सरस्वती वंदना:
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा माम पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्याऽपहा॥

पृथ्वीमाता सर्व प्राणियों को धारण करके पोषण करती हैं इसलिए उनके ऋण अदा करना आवश्यक हैं।
पृथ्वी क्षमा प्रार्थना मंत्र:
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते। विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

धरती के पश्चात अगर कीसी का ऋण अदा करना बनता हैं तो वह माता पिता हैं। हिन्दू धर्मका पौराणिक ग्रंथ गरुड़ पुराण कहता हैं कि संसार में माता पिता के समान अन्य कोई देवता नहीं हैं। हितकारी उपदेश देने वाले यह दोनों ही प्रत्यक्ष देवता हैं, इनके अलावा अन्य कोई देवता शरीरधारी नहीं हैं अतः हमें सदैव सभी प्रकार से अपने माता पिता की पूजा करनी चाहिए और इस मंत्र के माध्यम से उनका ऋण चुकाना चाहिए।
मातृपितृ ऋण मंत्र:
पितृमातृसमंलोके नास्त्यन्यद देवतं परम। तस्मात सर्वप्रयत्नेन पूजयते पितरौ सदा।।
हितानमुपदेष्टा हि प्रत्यक्षं दैवतं पिता। अन्या या देवता लोक में देहेप्रभवो हिता।।

संभव हैं कि इस मंत्र पठन या ईश्वर का नाम स्मरण करते समय कीसी भी प्रकार की कमी रह जाए, तो इसका निवारण होना चाहिये। हमें परम इश्वरीय तत्व को कहना चाहिए कि मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन करना नहीं जानता तथा पूजा करने का ढ़ंग भी नहीं जानता। क्षमा करो। मैंने जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन नाम स्मरण या पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो। मैं अपराधी हूँ किंतु तुम्हारी शरणमें आया हूँ। इस समय दयाका पात्र हूँ। तुम जैसा चाहो, वैसा करो। अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रान्त होने के कारण मैंने जो न्यूनता या अधिकता कर दी हो, वह सब क्षमा करो। प्रेमपूर्वक मेरी यह पूजा स्वीकार करो और मुझपर प्रसन्न रहो।
क्षमा अपराध मंत्र (क्षमा-प्रार्थना):
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वारि॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वारि॥२॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत्। यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके। इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरू॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम्। तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि॥६॥
कामेश्वंरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे। गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि॥७॥

मेरा एसा द्रढ मानना हैं कि यहां तक का मंत्र पठन और ईश्वर का नाम स्मरण करनेके पस्चात मुंहसे सौ प्रथम सिर्फ स्वस्ति वचन ही नीकलना आवश्यक हैं।
स्वस्ति-वाचन:
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

अति आवश्यक हितोपदेश:
अगर आप सनातन हिन्दू धर्म मे सच्ची आस्था रखते हैं तो आपको यहां तक बताया गया सबकुछ सही मायने में समजकर इसके अनुसार नित्य सुबह शाम मंत्र पठन करना ही चाहिए। पहला मंत्र आंख खूलते ही बीस्तर पर किया जाता हैं और दुसरा स्नान करते समय कीया जाता हैं। एक बार महावरा हो जाने पर बाकी सभी मंत्रों का पठन ज्यादा से ज्यादा आठ मीनीटमें ही किया जा सकता हैं। आप इसको कीसी भी वक्त कीसी भी स्थान में खडे खडे, बैठे बैठे या लेटे लेटे कीसी भी मुद्रा में स्वगत या प्रगट रुपमें कर सकते हो।

इश्वरकृपासे अगर आपने यह मंत्र पठन करनेकी ठान ली है तो आपके लिए अत्यंत आवश्यक और हितकारी जानकारी यह हैं कि:

हिंदू या सनातन धर्म में देव उपासना, शास्त्र वचन, मांगलिक कार्य, ग्रंथ पाठ या भजन-कीर्तन या अन्य धार्मिक विधियों के प्रारंभ में 'ॐ' शब्द का उच्चारण होता है। ॐ की ध्वनि तीन अक्षरों से मिलकर बनी है- अ, उ और म, जिसकी ध्वनि गहन होती है। ये मूल ध्वनियां हैं, जो हमारे चारों तरफ हर समय उच्चारित होती रहती हैं इसलिए ओंकार को अनहद नाद भी कहते हैं। ॐ का हिंदू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी महत्व है।

ॐ को प्रणव मंत्र भी कहते हैं। प्राचीन भारतीय धर्म विश्वास के अनुसार ब्रह्मांड के सर्जन के पहले प्रणव मंत्र का उच्चारण हुआ था। दरअसल, प्रणम नाम से जुड़े गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों में अलग तरह से बताए गए हैं। शिव पुराण में प्रणव के अलग अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं।

'प्र' यानी प्रपंच, 'ण' यानी नहीं और 'व:' यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है। दूसरे अर्थों में प्रणव को 'प्र' यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली 'ण' यानी नाव बताया गया है। कुछ ऋषि-मुनियों ने- 'प्र' अर्थात प्रकर्षेण, 'ण' अर्थात नयेत् और 'व:' अर्थात युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव:- बताया गया है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव: है।

उपनिषदो के अनुसार ओ, उ और म की तीन ध्वनियोंसे बने ॐ शब्दका उच्चारण एक के बाद एक होता है। साधक या योगी इसका उच्चारण ध्यान करने के पहले व बाद में करता है। योगियों में यह विश्वास है कि इस महामंत्र के अंदर मनुष्य की सामान्य चेतना को परिवर्तित करने की शक्ति है।

ॐ 'ओ' से प्रारंभ होता है जो चेतना के पहले स्तर को दिखाता है। चेतना के इस स्तर में इंद्रियां बहिर्मुख होती हैं। इससे ध्यान बाहरी विश्व की ओर जाता है। चेतना के इस अभ्यास व सही उच्चारण से मनुष्य को शारीरिक व मानसिक लाभ मिलता है।

आगे 'उ' की ध्वनि आती है, जहां पर साधक चेतना के दूसरे स्तर में जाता है। इसे तेजस भी कहते हैं। इस स्तर में साधक अंतर्मुखी हो जाता है और वह पूर्व कर्मों व वर्तमान आशा के बारे में सोचता है। इस स्तर पर अभ्यास करने पर जीवन की गुत्थियां सुलझती हैं, आत्मज्ञान होने लगता है और मनुष्य जीवन को माया से अलग समझने लगता है।

'म' ध्वनि के उच्चार से चेतना के तृतीय स्तर का ज्ञान होता है, जिसे 'प्रज्ञा' भी कहते हैं। इस स्तर में साधक सपनों से आगे निकल के चेतना शक्ति को देखता है, स्वयं को संसार का एक भाग समझता है और इस अनंत शक्ति स्रोत से शक्ति लेता है। इसके द्वारा साक्षात्कार के मार्ग में भी जा सकते हैं।

ॐ से शरीर, मन, मस्तिष्क व बुद्धि में आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है और मनुष्य शांत और तनावरहित  होकर स्वस्थ हो जाता है। ॐ के उच्चारण से फेफड़ों में, हृदय में स्वस्थता आती है। शरीर, मन और मस्तिष्क स्वस्थ और तनावरहित हो जाता है। ॐ के उच्चारण से वातावरण शुद्ध हो जाता है।

धर्मशास्त्रों के अनुसार मूल मंत्र या जप योग्य महामंत्र तो मात्र ॐ ही है। ॐ के आगे या पीछे लिखे जाने वाले शब्द गोण होते हैं। ॐ का उच्चारण कई बार किया जाता है, आप ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ का उच्चारण जप माला से पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं, अगर बैठने में असमर्थ हो तो लेटकर भी इसका उच्चारण कीया जा सकता है।

अतः मेरी आपको हाथ जोड़ कर ह्रदयपुर्वक बिनती हैं कि आप बताये गए तरिके से दाहिने हाथ में माला लेकर १०८ बार ॐ शब्दका उच्चारण के एक के हिसाब से ३, ५, ७, ९, ११ या २१ जपमाला अपने समयानुसार अवश्य करे।

कीसी भी प्राथना या ईश्वर का नाम स्मरण करनेके पस्चात जो पवित्र शांति उत्पन्न होती हैं उसे मनमे एवं अपनी चारों ओर प्रस्थापित करनी चाहिए।
शांति पाठ:
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:, पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

हिन्दू धर्म परंपरा शुरू से ही वैचारिक और आध्यात्मिक आझादी को पूरी तरह बढावा प्रदान करती आयी हैं। फलस्वरूप हिन्दू लोग तैतीस करोड़ देवी-देवताओं, अनेकों पंथ और संप्रदाय के अलावा गुरु, सिद्ध योगी, धार्मिक नेता और सद्पूरुषो को मानते हुए उनके आधारित पूजा अर्चना करते हैं।

इस बात का सन्मान करते हुए इतना करनेके पस्यात अगर आप घर या व्यवसाय के देवस्थान के संमुख स्वच्छ आसन पर बैठकर हिन्दू धर्म के जिस पंथ या संप्रदाय मे आप श्रद्धा रखते हो उसके अनुसार आपके इष्ट देवी-देवता की नित्य पूजा, आरती, भोग-प्रसाद करके नजदीकी मंदिर में दर्शन करके अपने दिनचर्या शुरू कर सकते हैं तो वह सोने पे सुहागा नित्यकर्म आपको सर्वदा कल्याण एवं मंगलकारी साबित होगा और आपका जीवन सार्थक होगा।

ईति कल्याणं अस्तु।।

पढऩे के लिये आभार प्रगट करते हुए मेरी यह बिनती हैं कि अगर आपको यह संग्रह बहुत ही सुंदर लगा है तो इसकी एक प्रति परिवार के बच्चों को भी अवश्य दे।

~महेश भट्ट

2 comments:

  1. प्रणाम! आप का पोस्ट अमूल्य, अत्यंत उपयोगी एवं दुर्लभ है|

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  2. इसमें कुछ वर्तनी अशुद्धि है जिसे हटाकर और सुन्दर किया जा सकता है अतः मुझे सेवा का अवसर दें

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